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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

नौ


भारद्वाज आश्रम तक वह लोग सहज ही चले आए। नौका यात्रा सुविधाजनक और क्षिप्र थी। गुह के नाविक न केवल नौका-परिचालन में दक्ष थे, वरन् मार्ग के भूगोल, नदी की प्रकृति, तथा अन्य प्रकार की विभिन्न कठिनाइयों से भली-भांति परिचित थे। गुह ने उन्हीं नाविकों को भेजा था, जो इस मार्ग पर अनेक बार आ-जा चुके थे; और अधिकांशतः सैनिक सेवाओं से संबद्ध रहे थे। कदाचित् उसके मन में हिंस्र जल-जंतुओं और शत्रुओं के आक्रमण का भय था।

घाट पर नौका को रोककर, उन नाविकों ने शस्त्रास्त्रों को आश्रम तक पहुंचाने में राम, सीता और लक्ष्मण की पूरी सहायता की। अंत में उनके नियंत्रक ने राम से कहा, ''यदि आर्य की इच्छा, जल-मार्ग से आगे यात्रा करने की हो, कुछ काल के पश्चात् आर्य वापस लौटना चाहें, अथवा आर्य के पास हमारी किसी भी प्रकार की उपयोगिता हो, तो हम आर्य के निकट ठहर कर ही प्रतीक्षा करें-ऐसी निषादराज की आज्ञा है।''

लक्ष्मण धीरे से फुसफुसाए, ''भाभी! निषादराज ने इन्हें चौदह वर्ष प्रतीक्षा करने का आदेश क्यों नहीं दिया?''

''तुम्हारे भैया साथ हैं न, इसलिए।'' सीता बोलीं, ''तुम अकेले होते तो गुह भैया, इन्हें चौदह वर्षों की प्रतीक्षा की ही आज्ञा देते।''

''नहीं नियंत्रक!'' राम ने गंभीर स्वर में कहा, ''हम तुम्हारे और निषादराज गुह के आभारी हैं। तुम्हारी सहायता से हम यहां तक बड़े आराम से पहुंच गए हैं। तुम साथ रहोगे तो हमें और भी सुविधा होगी;

किंतु हम सुविधामय जीवन तो छोड़कर, वनवास के लिए जा रहे हैं। और फिर तुम्हारे जैसे दक्ष सेना-नाविकों के लिए, निषादराज के पास अनेक कार्य होगे। ऋषि भारद्वाज के आश्रम का आतिथ्य ग्रहण कर, तुम यथाशीघ्र लौट जाओ।''

अतिथियों की सब प्रकार की व्यवस्था का निर्देश देकर, भारद्वाज आकर उनके पास बैठ गए। ''राम! मैं ऐसे स्थान पर बैठा हूँ, जहां आर्यावर्त के विभित्र भागों के सब प्रकार के लोगों का आवागमन लगा रहता है। मेरे पास अधिकांशतः ऋषि-मुनि तथा तापसगण ही आते है; राजपुराषों तथा व्यापारियों के आतिथ्य का अवसर भी कभी-कभी मिलता है। किंतु तुम जैसे युवराज का अपनी पत्नी और भाई के साथ शुभागमन आज पहली बार ही हुआ है। क्या ऐसा संभव है राम! कि तुम लोग यही मेरे आश्रम में, या मेरे आश्रम के निकट ही, अपने वनवास की अवधि व्यतीत कर सको?"

राम बहुत मीठे ढंग से मुसकराए, ''यदि ऐसा संभव होता, तो उसे हम अपना सौभाग्य समझते ऋषिवर! किंतु, यह स्थान, संगम तट पर होने के कारण, अयोध्या से इतना निकट है, कि वहीं से यहां और यहां से वहां, व्यक्ति तथा समाचार इतनी शीघ्रता और सुविधा से पहुंच सकते हैं कि वनवास न होकर, वनवास का नाटक मात्र रह जाएगा। अयोध्या से निरन्तर ऐसा संपर्क बनाए रखना, न हमारे लिए श्रेयस्कर है न अयोध्या के लिए।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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